बुधवार, 15 जुलाई 2015

रिस्तों की परिधि में अपना ठिकाना

रिश्तों की परिधि में अपना ठिकाना 


पढ़ना-लिखना किसी काम ना आया
डिग्री बक्शा भीतर रखी सहेजकर
ध्यान-ज्ञान हुशियारी सब धरे रह गए
स्त्री धर्म का कड़ुवा मर्म ओढ़कर
कभी-कभी विकल उसे एकाकीपन में
निहार लेती फिर रख देती सहेजकर
महकती कल्पना चहकती चेतना
कभी-कभी कलम उठा लेती है
और रच देती नवगीतों में अंतर्वेदना
कोई ना जाने मेरे अक्षरों की दुनिया
कौन निखारे मेरे मन्सूबों की कोठियां
विचार,विवेक बुद्धि जैसी मीनारें
भीतर ही भीतर दरक उठती हैं
जब कोई करता गुणगान किसी का
लहूलुहान हो जाती प्रतिभा की संजीवनी
झनझना जातीं वजूद की दीवारें
तौहिनिया श्मशाम के सन्नाटे जैसा चिर देती  
ज़िंदगी शनैः-शनैः बीत रही काम के तले
बस बनाते संवारते हुए घर, 
बुहारती मन का विराट चबूतरा
और निहारती निर्मल सपनों पर जमी गर्द और
दूर-दूर तक देखती उन आयामों को
जहाँ ना मैं ना मेरा वजूद ना मेरा नाम
बस हिस्से में काम, मन में सबके लिए मंगल  कामना
खटते रहने का नाम अपने हिस्से में रखना
क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ ,इससे इतर मेरा कोई मुकाम नहीं
रिश्तों की परिधि में अपना ठिकाना
सोचती हूँ कब काली रात के बाद वो सुबह आएगी
जहाँ एक स्त्री की बदहाल तस्वीर की जगह
कल्पनाओं का साकार और विशाल आसमान होगा ,
काम से इतर कुछ घड़ी के विश्राम में
जीवन का अनकहा ,अव्यक्त राग उंड़ेल देती हूँ
कागज की छाती पर पोरों के अनुदान से 
कलम और कागज ही जीवन के सच्चे साथी हैं
ये ही सच्चे अर्थों में मेरी अनुभूतियों से परिचित हैं
रूबरू हैं मेरी योग्यता और प्रतिभा के शीशमहल से
मन का निनाद इनके सीने पर अभिलक्षित कर
ह्रदय की अनुकृति का आकार और आकृति
इन्हीं कोरे कागज़ों पर महसूसती हूँ 
शायद ये लेखन ही मेरी डिग्री का पारितोष हो । 

                                             शैल सिंह

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