शनिवार, 11 अप्रैल 2015

देवी उपाधि नहीं मन भाती

देवी उपाधि नहीं मन भाती


जब-जब होती हूँ तनहा 
काटे कटता नहीं जब लमहा
तब-तब कलम सखी बनकर
शब्दों का जामा जाती पेहना  ।

मेरे अनुरागी मानस पर
जब वैराग औ राग उफनते हैं
आँखों के आँसू स्याही बनकर
अंतर का दर्द उगलते हैं ।

नारी शब्द से नफ़रत होती है
अबला नाम से होती है घृना
बंधन पायल,बिंदिया,कंगन
ताक़त इनसे होती बौना ।

त्याग,तपस्या,ममता की मूरत
देवी उपाधि नहीं मन भाती
वात्सल्य की मोहरा बन नारी 
बैरी जग से छली है जाती ।

तुझे दुवा दें या करें  शुक्रिया अदा
बता ऐ अपराधी,अन्यायी ख़ुदा
आँचल में दूध और आँख में पानी
क्यों उसकी ही लिखी ऐसी बदा ।

बाँहें पालना अङ्क सुखों की शैय्या
जिसकी गोदी में सुखद बसेरा
दिन-रात जली जो दीपशिखा सी
क्यों उसके अंतस में गहन अँधेरा ।

                                              शैल सिंह

2 टिप्‍पणियां:

  1. पुरुष प्रधान समाज ने हर प्रकार का षड़यंत्र रचा है ताकि नारी को दबा कर रखा जा सके ...सादर

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