शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

कुछ क्षणिकाएँ

हे मेरे अन्तर्यामी प्रभो 

 जीवन के  सूने स्वप्न सदन में 
 सृष्टि  की  समरसता  भर  दो 
 उद्भ्रान्त पथिक के विवर मन में          
 शाश्वत जीवन का रंग भर दो ,

लगता मेरा दुःख सबका दुःख है 
सबका दुःख मेरा अपना दुःख है 
तभी तो  राग एक  है रंग अनेक 
और भाव एक है बस अंग अनेक ,

हम सब जलती आग के ईंधन हैं 
मरना सबको इक दिन सत्य यही 
क्षणिक मिलन के मोद में भूलें ना 
मिलने औ बिछड़ने के तथ्य कहीं ,

दृढ़ प्रतिज्ञ हों तन-मन से यदि 
तो नहीं असम्भव होता कुछ भी 
जितनी विकट हो राह लक्ष्य की
हो जाती सुगम पथ कंटकमय भी ,

कभी लक्ष्य नहीं देखता 
   धुप,ताप,छाँह,बिजलियाँ 
      पग चल पड़ते हैं बेपरवाह
         दिशा की खोज में अन्जान 
            चाहे लाख काँटों भरी हों 
               जीवन की हर पगडंडियाँ । 
                                             शैल सिंह 




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

होली पर कविता

होली पर कविता ---- हम उत्सवधर्मी देश के वासी सभी पर मस्ती छाई  प्रकृति भी लेती अंगड़ाई होली आई री होली आई, मन में फागुन का उत्कर्ष अद्भुत हो...